Tuesday, February 22, 2011

स्वामी विवेकानन्द

//त्रोदश दृश्य //

एक विशेष टिप्पणी
      भारतवर्ष में स्वामी जी ने भाषण बहुत कम ही दिए। यहाँ पर उनका प्रमुख कार्य था भूमि तैयार करना- मनुष्य निर्माण करना। भारत-भूमि पर शब्द-तरंगरूपी जो बीज उन्होंने बिखेरे थे उसका फल हमें भारत की वर्तमान उन्नति में दीखता है। स्वामी जी ने जो जागरण का शंखनाद किया था उसी के परिणाम स्वरूप बीसवीं शताब्दी के भारत में परिवर्तन देखने में आते हैं। लोक्मान्य तिलक, महात्मा गाँधी, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस और पण्डित नेहरू आदि नेताओं ने भारत के स्वाधीनता-आन्दोलन में जो भूमिका की है, उसके पीछे प्रेरणा है, स्वाधीनता के ॠत्विक् स्वामी विवेकानन्द की सशक्त वाणी और उनका आह्वान्।
      सन् 1929 ई. की स्वामी जी की जन्म तिथि पर बेलुड़ मठ में प्रदत एक भाषण में महात्मा गाँधी ने कहा था- मैं यहाँ असहयोग आन्दोलन या चरखे का प्रचार करने नहीं आया हूँ। मैं स्वामी विवेकानन्द के जनम दिवस पर उनकी पुण्यस्मृति में श्रद्धांजलि अर्पित करने आया हूँ। मैंने स्वामी जी के ग्रन्थ बड़े ही ध्यानपूर्वक पढ़े हैं और इसके फलस्वरूप देश के प्रति मेरा प्रेम और भी बढ़ गया है। युवकों से मेरा अनुरोध है कि स्वामी विवेकानन्द जी जहाँ निवास करते थे और जहाँ उन्होंने देहत्याग किया वहाँ से कुछ प्रेरणा लिए बिना, खाली हाथ ही न लौटें। महात्मा जी की इस उक्ति से पता चलता है कि समकालीन एवं परवर्ती भारत के प्रमुख नेताओं पर स्वामी जी के जीवन और वाणी का कितना अधिक प्रभाव पड़ा है।
      जन-साधारण की शिक्षा और उन्नति पर ही किसी भी देश का भाग्य निर्भर करता है। स्वामी जी ने कहा था- याद रखो, प्रत्येक देश में ये ही राष्ट्र के मेरुदण्ड हैं।........भारतीय राष्ट्र निर्धनों की कुटिया में बसता है।
टिप्पणी
     स्वामी जी का शरीर अब जीर्ण हो चला था। विश्वविजयी,  कर्मवीर, प्रसिद्ध वक्ता, देश भक्त विवेकानन्द मानो विदा ले रहे थे। एक दिन मठ की जमीन पर गरीब लोग कार्य कर रहे थे। उन्हें प्रेम-पूर्वक भोजन कराने के बाद कहा- ये लोग नारायण हैं। आज मैंने साक्षात नारायण को भोज कराया है।
      5 जुलाई 1902 को वे बहुत सवेरे उठे। ठाकुर के मन्दिर में गये और ध्यान में बैठ गये। मन्दिर से लौटकर वे माँ-काली का भजन गाते हुए बरामदे में टहलने लगे। उस समय उनमें एक अदभुत भाव प्रकट हो रहा था। स्वामी प्रेमानन्द पास में ही थे। उन्होंने सुना स्वामी जी कह रहे हैं- यदि एक और विवेकानन्द होता तो समझ पाता कि यह विवेकानन्द क्या कर गया है।
      दोपहर में भोजन और थोड़ा सा विश्राम करने के बाद एक बजे से उन्होंने ब्रह्मचारियों को लगातार तीन घन्टे तक संस्कृत-व्याकरण पढ़ाया।
      अंधेरा होने के पूर्व ही वे मठ लौट आये। मन्दिर में आरती का घन्टा बजने पर स्वामी जी दूसरी मंजिल पर अपने कमरे में जाकर गंगा की ओर निहारते खड़े हो गये। सामने गंगा के उस पार दीख रहा था काशीपुर का वही श्मशान-घाट जहाँ पर श्री राम कृष्णदेव के शरीर का दहन किया गया था। सेवक ब्रह्मचारी को बाहर बैठकर जप करने का आदेश देकर वे स्वयं पूर्व कि ओर मुंह करके ध्यान में बैठे। उनकी दृष्टि स्थिर थी-दोनो भौंहो के बीच और मुख-मण्डल पर स्वर्णिम ज्योति विराज रही थी। उनका मन क्रमश: महासमाधि के द्वारा आत्मस्वरूप में लीन हो गया।
श्रम आत्मा के लिए रसायन का काम करता है। श्रम ही मनुष्य की आत्मा है।
स्वामी कृष्णानंद
      




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