// तृतीय दृश्य //
नरेन्द्र घर लौट गया। परन्तु सब समय अब राम कृष्ण का विचार उन्हें चैन नहीं लेने देता था। अन्त में नरेन्द्र अकेले ही दक्षिणेश्वर की ओर चल पड़े। इधर मानो राम कृष्ण नरेन्द्र की प्रतिक्षा ही कर रहे थे।
नरेन्द्र के आ पहूँचते ही वे अधीर हो उठे और `तू आया ? कहकर उन्हें तख्त पर अपने पास बैठा लिया। फिर वे बड़े स्नेह से उनकी ओर देखने लगे। देखते ही देखते श्री रामकृष्ण में अद्भुत भावान्तर उपस्थित हुआ। वे भावाविष्ट से हो अस्पष्ट स्वर में अपने आप से ही कुछ बोलते हुए धीरे धीरे नरेन्द्र के बिलकुल निकट आ गए। इसके बाद जो हुआ उनका वर्णन नरेन्द्र नाथ ने इस प्रकार किया है। “...अकस्मात मेरे निकट आकर उन्होंने अपने दाहिने पाँव से मुझे छू दिया। उस स्पर्श से क्षण्भर में मुझमें एक अपूर्व अनुभूति आ उपस्थित हुई। आँखे खुली ही थी---देखा, दिवार समेत कमरे की सारी चीजें बड़े वेग से घुमती हुई न जाने कहाँ विलीन होती जा रहीं हैं और समग्र विश्व के साथ मेरा मैं-पन बी मानो एक सर्वग्रासी महाशून्य में विलीन हो जाने के लिए वेग से बढ़ता चला जा रहा है।मैं अत्यन्त भय से विह्वल हो गया।मन में आया-मैंपन का नाश ही तो मृत्यु है! वही मृत्यु सामने, अति निकट आ पहुँची है! अपने को सम्हाल न सकने के कारण मैं चिल्ला उठा-‘अजी, आपने मेरा क्या कर डाला? मेरे माता-पिता जो हैं!”
“वह अदभुत ‘पागल’ मेरी यह बात सुन ठहाका मारकर हँस उठा। फिर अपने हाथ से मेरी छाती का स्पर्श कर वे कहने लगे, ‘तो अब रहने दे। एक ही बार में आवयश्क नहीं, समय पर होगा।‘और आश्चर्य की बात यह कि, उनसे इस प्रकार स्पर्श कर वह बात कहते ही मेरी वह अपूर्व अनुभूति एकदम चली गयी। मैं होश में आया और कमरे के भीतर-बहर की सभी वस्तुएँ मुझे फिर पहले ही जैसी स्थित दिखाई देने लगी।“
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