//द्वादश दृश्य //
स्वामी जी की ओजस्वी वाणी ने विदेशियों में ही नहीं भारतवासियों के जीवन में भी उथल-पुथल मचा दी। निर्भीक जन-जागरण ने संगठित हो राष्ट्रीयवाद की नई दिशा दी। उन्होनें भविष्य के भारत में अपना-अपना स्थान ग्रहण करने को आम-जनता का आह्वान किया।– ‘नया भारत निकल पड़े मोंची की दुकान से, भडभूंजे के भाड़ के पास से, कारखाने से, हाट से, बाजार से; निकल पड़े झाड़ियों से, जंगलों से, पहाड़ों से।......
जनता ने स्वामी जी की पुकार का उत्तर दिया। वह गर्व के साथ निकल आयी। गाँधीजी को आजादी की लड़ाई में जो जन-समर्थन मिला, वह विवेकानन्द के आह्वान का ही फल था। वस्तुतः विवेकानन्द भारत के स्वाधीनता-आन्दोलन के एक प्रमुख प्रेरणा-स्त्रोत थे। राष्ट्र की जीवन-भूमि में उन्होंने मुक्ति चेतना का जो बीज बोया, वही कालान्तर में अनेकों के आत्मत्याग और रक्तसिंचन के फलस्वरूप एक राष्ट्र्व्यापी आन्दोलनरूपी विशाल वृक्ष के रूप में परिणत हुआ और उसी से भारतवर्ष को स्वतंत्रता रूपी फल मिला। उन्होंने जो ‘उत्तिष्टत जाग्रत’....की ललकार लगाई थी उसको सुनकर लाखों लोग उठ खड़े हुए थे। इस जागरण के फलस्वरूप बीसवीं शताब्दी में राष्ट्रीय आन्दोलन ने प्रार्थना-निवेदन का प्राणहीन मार्ग छोड़कर तीव्र निर्भीक राष्ट्रीयता के नये रास्ते को पकड़ा था।
20 फरवरी 1897 ई. को वे कलकत्ता पहुँचे। वहाँ उनके विराट् स्वागत की तैयारी थी। स्वामी जी और उनके पाश्चात्य-शिष्यों को चार घोड़ों की एक बग्घी में बैठाया गया। सियालदह से उत्साही नवयुवकों ने घोड़े खोल दिए और स्वंय गाड़ी खींचकर ले चले। बंगाल के निवासियों और उनके गुरूभाइयों ने अत्यन्त प्रिति और आग्रह के साथ उन्हें ग्रहण किया।
कलकत्ता के नागरिकों ने उनकी विराट् अभ्यर्थना की। उत्तर में उन्होंने कहा-“श्री रामकृष्ण के चरणों मे बैठकर शिक्षा ग्रहण करने पर ही भारत का पुनर्जागरण होगा।“ साथ ही बंगाल के युवकों से उन्होंने आवेदन किया- “मैं तो अभी तक कुछ नहीं कर सका। सब कुछ तुम्हीं को करना होगा।...” बंगाल के युवकों ने विवेकानन्द के इस आह्वान का उत्तर दिया। उनका वह आह्वान आज भी धरती एवं आकाश में गूंजते हुए उपयुक्त अधिकारियों को आकर्षित कर रहा है।
अब हम विमुग्ध होकर स्वामी जी के जीवन में एक नये अध्याय का श्री गणेश देखेंगे। आलमबाजार मठ में गुरू भाईयों के साथ रह्ते हुए अब उन्होंने संगठन के कार्य में मनोनियोग किया। जननी-जन्म्भूमि की सेवा में अपने आपको समर्पित कर देने को उन्होंने युवकों का आह्वान किया। उनके आह्वान के संगीत ने सब का ह्रदय छू लिया। उन्होंने कहा- “अगले पचास वर्षों के लिए राष्ट्र ही हमारा एकमात्र देवता हो।....सर्वप्रथम विराट् की पूजा करनी होगी, सेवा नहीं-पूजा। ये मनुष्य, ये पशु, ये ही तुम्हारे ईश्वर हैं, और तुम्हारे प्रथम उपास्य तुम्हारे देशवासी ही हैं....।“ उन्होंने और भी कहा-
“बहु रूपों में खड़े तुम्हारे आगे, और कहाँ है ईश?
व्यर्थ खोज। यह जीव-प्रेम की ही सेवा पाते जगदीश।“
मार्च 1897 ई. के अन्तिम सप्ताह में स्वामी रामकृष्णानन्द वेदान्त प्रचारार्थ मद्रास भेजे गए। स्वामी जी की सेवा भावना से प्रेरित हो स्वामी अखण्डानन्द मुर्शिदाबाद में दुर्भिक्ष पीड़ितों की सेवा में जुट गए। उसी वर्ष स्वामी त्रिगुणातीतानन्द ने दिनाजपुर जिले में एक दुर्भिक्ष-सेवा केन्द्र खोला और चारों तरफ के बहुत से गाँवों में फैले अकाल पीड़ितों की सेवा करने लगे। उसी वर्ष स्वामी शिवानन्द प्रचार करने श्रीलंका भेजे गए। उधर अमेरिका में स्वामी सारदानन्द और स्वामी अभेदानन्द सफलता पूर्वक वेदान्त-प्रचार का कार्य चला रहे थे।
1 comment:
स्वामी जी की जीवनी आपकी कलम से काफी दिनों से पढ़ रहा हूँ.
सच में युवाओं के प्रेरणा स्त्रोत है विवेकानंदजी.
सलाम.
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